हिन्द के मय-ख़ाने से इक साथ उठे दो बादा-ख़्वार
एक ने बोतल सँभाली इक ने बोतल फोड़ दी
फ़ातिहा दोनों पे दोनों ने किया है इंतिक़ाल
एक जन्नत में मकीं है इक ने जन्नत छोड़ दी है
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आह गाँधी
ये इनायतें ग़ज़ब की ये बला की मेहरबानी
करम जब आम है साक़ी तो फिर तख़सीस ये कैसी
दीवाली
हर साँस में इक हश्र बपा है वाइ'ज़
बद-गुमानी को बढ़ा कर तुम ने ये क्या कर दिया
मिरा मन है शहर-ए-गोकुल की तरह से साफ़-सुथरा
एक झोंका इस तरह ज़ंजीर-ए-दर खड़का गया
बेबादा भी ग़म से दूर हो जाता हूँ
पेशानी पे सय्याल नगीना क्यूँ है
मिरी बे-ज़बान आँखों से गिरे हैं चंद क़तरे
मय-ख़्वारों से जब दूर नज़र आएगी