वो आइना हूँ जो कभी कमरे में सजा था
अब गिर के जो टूटा हूँ तो रस्ते में पड़ा हूँ
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तूफ़ाँ से थपेड़ों के सहारे निकल आए
कितनी शर्मीली लजीली है हवा बरसात की
पेशानी पे सय्याल नगीना क्यूँ है
मिरी बे-ज़बान आँखों से गिरे हैं चंद क़तरे
दीपावली
हुए मुझ से जिस घड़ी तुम जुदा तुम्हें याद हो कि न याद हो
मय-ख़्वारों से जब दूर नज़र आएगी
तुम नैन के दोनों पट मेरे लिए वा रखना
बद-गुमानी को बढ़ा कर तुम ने ये क्या कर दिया
बढ़ता हुआ हौसला न टूटे दिल का
एक दीवाने को जो आए हैं समझाने कई