बहुत मुश्किल है बंजारा-मिज़ाजी
सलीक़ा चाहिए आवारगी में
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चाहतें मौसमी परिंदे हैं रुत बदलते ही लौट जाते हैं
धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो
सलीक़ा
ख़ुदा के हाथ में मत सौंप सारे कामों को
अच्छी नहीं ये ख़ामुशी शिकवा करो गिला करो
मेरी ग़ुर्बत को शराफ़त का अभी नाम न दे
उठ के कपड़े बदल घर से बाहर निकल जो हुआ सो हुआ
मुट्ठी भर लोगों के हाथों में लाखों की तक़दीरें हैं
जितनी बुरी कही जाती है उतनी बुरी नहीं है दुनिया
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
सुना है मैं ने