यक़ीन चाँद पे सूरज में ए'तिबार भी रख
मगर निगाह में थोड़ा सा इंतिज़ार भी रख
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इत्तिफ़ाक़
वही हमेशा का आलम है क्या किया जाए
हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
खेल
कोई नहीं है आने वाला फिर भी कोई आने को है
हम लबों से कह न पाए उन से हाल-ए-दिल कभी
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें
मुट्ठी भर लोगों के हाथों में लाखों की तक़दीरें हैं
बड़े बड़े ग़म खड़े हुए थे रस्ता रोके राहों में
सफ़र को जब भी किसी दास्तान में रखना
अच्छी नहीं ये ख़ामुशी शिकवा करो गिला करो