बात वो आधी रात की रात वो पूरे चाँद की
चाँद भी ऐन चैत का उस पे तिरा जमाल भी
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अपने क़ातिल की ज़ेहानत से परेशान हूँ मैं
हर्फ़-ए-ताज़ा नई ख़ुशबू में लिखा चाहता है
क़दमों में भी तकान थी घर भी क़रीब था
ख़्वाब
मैं फ़क़त चलती रही मंज़िल को सर उस ने किया
निक-नेम
एक सूरज था कि तारों के घराने से उठा
अब इतनी सादगी लाएँ कहाँ से
मसअला
ज़ुल्म सहना भी तो ज़ालिम की हिमायत ठहरा
घर आप ही जगमगा उठेगा
जुस्तुजू खोए हुओं की उम्र भर करते रहे