ये सब रंगीनियाँ ख़ून-ए-तमन्ना से इबारत हैं
शिकस्त-ए-दिल न होती तो शिकस्त-ए-ज़िंदगी होती
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तुम्हें जो मेरे ग़म-ए-दिल से आगही हो जाए
आलम-ए-सोज़-ए-तमन्ना बे-कराँ करते चलो
वक़्त करता है परवरिश बरसों
अभी तो तन्क़ीद हो रही है मिरे मज़ाक़-ए-जुनूँ पे लेकिन
कोई दीवाना चाहे भी तो लग़्ज़िश कर नहीं सकता
अब ये आलम है कि ग़म की भी ख़बर होती नहीं
ग़म-ए-जहाँ के तक़ाज़े शदीद हैं वर्ना
हैरतों के सिलसिले सोज़-ए-निहाँ तक आ गए
तुम न मानो मगर हक़ीक़त है
दिन छुपा और ग़म के साए ढले
दिल-ए-दीवाना अर्ज़-ए-हाल पर माइल तो क्या होगा