तमाम उम्र रहे मेरा मुंतज़िर तू भी
तमाम उम्र मिरे इंतिज़ार को तरसे
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आतिश-ए-सोज़-ए-मोहब्बत को बुझा सकता हूँ मैं
तिरी नज़र के इशारों को नींद आई है
नज़र-नवाज़ नज़ारों से बात करता हूँ
कह रही है सारी दुनिया तेरा दीवाना मुझे
तू सरापा नूर है मैं तेरा अक्स-ए-ख़ास हूँ
मुन्हरिफ़ मुझ से इक ज़माना है
ख़िज़ाँ की ज़द में ही अब तक तिरा गुलिस्ताँ था
निज़ाम-ए-गुलशन-ए-हस्ती बदल के दम लेंगे
अब तो रुस्वाइयाँ यक़ीनी हैं
तिरे बग़ैर तेरे इंतिज़ार से थक कर
तुझे भी चैन न आए क़रार को तरसे
मोहब्बत की सहबा पिलाने चला हूँ