क्या हो सके हिसाब कि जब आगही कहे
अब तक तो राएगानी में सारा सफ़र किया
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मैं कब से बे-ख़ाल-ओ-ख़त पड़ा हूँ
एक कत्बे की तलाश में
ज़िंदगी अपना फ़ैसला ख़ुद लिखेगी
किस मशक़्क़त से मुझे जिस्म उठाना पड़ा है
किसी तरतीब में रक्खी न बिखरने दी है
ख़ुद अपना बोझ उठाओ यहाँ से कूच करो
ये झाँक लेती है अंदर से आरज़ू-ख़ाना
दस्त-ए-हुनर झटकते ही ज़ाएअ' हुनर गया
मैं नज़्म लिखता हूँ!
बदन का नौहा
दर-ए-इम्कान की दस्तक मुझे भेजी गई है
शोरिशों से खेलना हंगामों से डरना नहीं