मैं जानता हूँ मोहब्बत में क्या नहीं करना
ये वो जगह है जहाँ क़ैस भी फिसलता है
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दिलों में ख़ौफ़ के चूल्हे की आग ठंडी हो
मोहब्बतों के लिए उम्र कम है सो वो शख़्स
कितने ख़्वाब समेटे कोई कितने दर्द कमाएगा
तू कोई ख़्वाब नहीं जिस से किनारा कर लें
क़ीमती शय थी तिरा हिज्र उठाए रक्खा
अगरचे रोज़ मिरा सब्र आज़माता है
गए दिनों में ये इनआम होने वाला था
ये जो चार दिन की थी ज़िंदगी इसे तेरे नाम न कर सका
होता है मेहरबान कहाँ पर ख़ुदा-ए-इश्क़
मैं हाव-हू पे कहानी को ख़त्म कर दूँगा
आओ आँखें मिला के देखते हैं
कई तरह के तहाइफ़ पसंद हैं उस को