क़ीमती शय थी तिरा हिज्र उठाए रक्खा
वर्ना सैलाब में सामान कहाँ देखते हैं
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अब ऐसे दश्त-मिज़ाजों से दूर घर लिया जाए
इस दौर-ए-ना-मुराद से ये तजरबा हुआ
ज़िंदगी देख तिरी ख़ास रिआयत होगी
मानूस रौशनी हुई मेरे मकान से
उसे पता है कहाँ हाथ थामना है मिरा
आओ आँखें मिला के देखते हैं
नुक्ता यही अज़ल से पढ़ाया गया हमें
अगरचे रोज़ मिरा सब्र आज़माता है
एक तू, एक आशिक़ी मेरी
ये जो चार दिन की थी ज़िंदगी इसे तेरे नाम न कर सका
बना हुआ है हमारा कसी बहाने से
मैं हाव-हू पे कहानी को ख़त्म कर दूँगा