मानूस रौशनी हुई मेरे मकान से
वो जिस्म जब निकल गया रेशम के थान से
तुम में से कौन कौन मुझे ये बताएगा
उतरा है कौन मेरे लिए आसमान से
तुझ आँख से झलकता था एहसास-ए-ज़िंदगी
मैं देखता रहा हूँ तुझे ख़ाक-दान से
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बर्फ़ पिघली तो रास्ता निकला
गए दिनों में ये इनआम होने वाला था
इक तस्वीर पिया की उभरी मंज़र से
बना हुआ है हमारा कसी बहाने से
हज़ार रस्ते तिरे हिज्र के इलाज के हैं
मोहब्बतों के लिए उम्र कम है सो वो शख़्स
जीत और हार का इम्कान कहाँ देखते हैं
मैं हाव-हू पे कहानी को ख़त्म कर दूँगा
दिल क़नाअत ज़रा सी करता तो
एक दो ख़्वाब अगर देख लिए जाएँगे
कई तरह के तहाइफ़ पसंद हैं उस को
ये जो चार दिन की थी ज़िंदगी इसे तेरे नाम न कर सका