बर्फ़ पिघली तो रास्ता निकला
फिर से मिलने का सिलसिला निकला
फिर वो लौट आई ज़िंदगी की तरफ़
मेरे होंटों से शुक्रिया निकला
तुझ से कहना था हाल-ए-दिल लेकिन
तू भी ऐ दोस्त आइना निकला
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ज़िंदगी देख तिरी ख़ास रिआयत होगी
एक दो ख़्वाब अगर देख लिए जाएँगे
अगरचे रोज़ मिरा सब्र आज़माता है
कई तरह के तहाइफ़ पसंद हैं उस को
ईंट से ईंट जोड़ कर, ख़्वाब बना रहा हूँ मैं
इस दौर-ए-ना-मुराद से ये तजरबा हुआ
ऐसी प्यारी शाम में जी बहलाने को
जीत और हार का इम्कान कहाँ देखते हैं
मैं उस की नज़रों का कुछ इस लिए भी हूँ क़ाइल
दिल क़नाअत ज़रा सी करता तो
दिलों में ख़ौफ़ के चूल्हे की आग ठंडी हो
ये जो चार दिन की थी ज़िंदगी इसे तेरे नाम न कर सका