मैं उस की नज़रों का कुछ इस लिए भी हूँ क़ाइल
वो जिस को चाहे उसे देखना सिखाता है
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गए दिनों में ये इनआम होने वाला था
वस्ल नुक़सान कर गया मेरा
अब ऐसे दश्त-मिज़ाजों से दूर घर लिया जाए
तू कोई ख़्वाब नहीं जिस से किनारा कर लें
एक तू, एक आशिक़ी मेरी
तुझ से कहना था हाल-ए-दिल लेकिन
अगरचे रोज़ मिरा सब्र आज़माता है
तुझ को बताएँ किस तरह, बैठे हैं कैसे हाल में
जीत और हार का इम्कान कहाँ देखते हैं
मानूस रौशनी हुई मेरे मकान से
इस दौर-ए-ना-मुराद से ये तजरबा हुआ