हज़ार रस्ते तिरे हिज्र के इलाज के हैं
हम अहल-ए-इश्क़ ज़रा मुख़्तलिफ़ मिज़ाज के हैं
Ahmad Faraz
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ऐसी प्यारी शाम में जी बहलाने को
ईंट से ईंट जोड़ कर, ख़्वाब बना रहा हूँ मैं
मोहब्बतों के लिए उम्र कम है सो वो शख़्स
मानूस रौशनी हुई मेरे मकान से
गए दिनों में ये इनआम होने वाला था
ख़ुदा का शुक्र कि आहट से ख़्वाब टूट गया
नुक्ता यही अज़ल से पढ़ाया गया हमें
बर्फ़ पिघली तो रास्ता निकला
बना हुआ है हमारा कसी बहाने से
अगर ये चेहरा यूँही गर्द से अटा रहेगा
अगरचे रोज़ मिरा सब्र आज़माता है
तू कोई ख़्वाब नहीं जिस से किनारा कर लें