ख़ुदा का शुक्र कि आहट से ख़्वाब टूट गया
मैं अपने इश्क़ में नाकाम होने वाला था
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एक तू, एक आशिक़ी मेरी
हर साँस नई साँस है हर दिन है मिरा दिन
अगरचे रोज़ मिरा सब्र आज़माता है
अगर ये चेहरा यूँही गर्द से अटा रहेगा
अब ऐसे दश्त-मिज़ाजों से दूर घर लिया जाए
मैं उस की नज़रों का कुछ इस लिए भी हूँ क़ाइल
होता है मेहरबान कहाँ पर ख़ुदा-ए-इश्क़
गए दिनों में ये इनआम होने वाला था
तू कोई ख़्वाब नहीं जिस से किनारा कर लें
मानूस रौशनी हुई मेरे मकान से
दिल इक ऐसा कासा है जिस की गहराई मत पूछो