गर गरेबाँ सिया तो क्या नासेह
सीने का चाक बिन सिया ही रहा
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इस चश्म ओ दिल ने कहना न माना तमाम उम्र
मौत भी आती नहीं हिज्र के बीमारों को
गुल-ए-उश्शाक़ रंग-ए-बाख़्ता है
देखी थी एक रात तिरी ज़ुल्फ़ ख़्वाब में
यार के रुख़ ने कभी इतना न हैराँ किया
न काबा है यहाँ मेरे न है बुत-ख़ाना पहलू में
या फ़क़ीरी है या कि शाही है
किस तरह 'रज़ा' तू न हो धवाने ज़माना
आरज़ू-ए-विसाल में सब हैं
टुक तू महमिल का निशाँ दे जल्द ऐ सूरत ज़रा
इलाही चश्म-ए-बद उस से तू दूर ही रखियो
ख़ुशा हो कर बुताँ कब आशिक़ों को याद करते हैं