देखी थी एक रात तिरी ज़ुल्फ़ ख़्वाब में
फिर जब तलक जिया मैं परेशान ही रहा
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भर नज़र देखेंगे हम उस को मिला जानाँ अगर
सौ ईद अगर ज़माने में लाए फ़लक व-लेक
जो तिरे दर पे मेरी जाँ आया
इस चश्म ओ दिल ने कहना न माना तमाम उम्र
उस चश्म ने कि तूतियों को नुक्ता-दाँ किया
इलाही चश्म-ए-बद उस से तू दूर ही रखियो
जिस तरह हम रहे दुनिया में हैं उस तरह 'रज़ा'
गुल-ए-उश्शाक़ रंग-ए-बाख़्ता है
अब्र के बिन देखे हरगिज़ ख़ुश दिल-ए-मस्ताँ न हो
ख़्वाह काफ़िर मुझे कह ख़्वाह मुसलमान ऐ शैख़
तबीब देख के मुझ को दवा न कुछ बोला
नाज़ का मारा हुआ हूँ मैं अदा की सौगंद