इक दम के वास्ते न किया क्या क्या ऐ 'रज़ा'
देखा छुपाया तोड़ा बनाया कहा सुना
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उस चश्म ने कि तूतियों को नुक्ता-दाँ किया
इश्क़ के जाँ-निसार जीते हैं
अब तो तुम भी जवाँ हुए हो देखेंगे दिल को बचाओगे तुम
जिस तरह हम रहे दुनिया में हैं उस तरह 'रज़ा'
शर्मिंदा नहीं कौन तिरी इश्वा-गरी का
गर गरेबाँ सिया तो क्या नासेह
टुक बैठ तू ऐ शोख़-ए-दिल-आराम बग़ल में
नाज़ का मारा हुआ हूँ मैं अदा की सौगंद
लाज़िम है बुलंद आह की रायत न करे तू
इमारत दैर ओ मस्जिद की बनी है ईंट ओ पत्थर से
क्या न-दीदों से ज़माने को सरोकार है आज
न काबा है यहाँ मेरे न है बुत-ख़ाना पहलू में