न काबा है यहाँ मेरे न है बुत-ख़ाना पहलू में
लिया किस घर बसे ने आह आ कर ख़ाना पहलू में
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क्या न-दीदों से ज़माने को सरोकार है आज
ऐसा किसी से जुनूँ दस्त-ओ-गरेबाँ न हो
ख़ुशा हो कर बुताँ कब आशिक़ों को याद करते हैं
हर नफ़स मूरिद-ए-सफ़र हैं हम
ज़ख़्म के लगते ही क्या खुल गए छाती के किवाड़
सौ ग़म्ज़े के रखता है निगहबान पस-ओ-पेश
किस तरह 'रज़ा' तू न हो धवाने ज़माना
देखी थी एक रात तिरी ज़ुल्फ़ ख़्वाब में
आरज़ू-ए-विसाल में सब हैं
सुनते तो थे 'रज़ा' हैं सब हैं बड़े मुसलमाँ
काबे में शैख़ मुझ को समझे ज़लील लेकिन
वबाल-ए-जान हर इक बाल है म्याँ