क्या कहें अपनी सियह-बख़्ती ही का अंधेर है
वर्ना सब की हिज्र की रात ऐसी काली भी नहीं
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इलाही चश्म-ए-बद उस से तू दूर ही रखियो
वबाल-ए-जान हर इक बाल है म्याँ
उस चश्म ने कि तूतियों को नुक्ता-दाँ किया
शर्मिंदा नहीं कौन तिरी इश्वा-गरी का
किस तरह 'रज़ा' तू न हो धवाने ज़माना
टुक तू महमिल का निशाँ दे जल्द ऐ सूरत ज़रा
इस चश्म ओ दिल ने कहना न माना तमाम उम्र
गुल-ए-उश्शाक़ रंग-ए-बाख़्ता है
सौ ईद अगर ज़माने में लाए फ़लक व-लेक
मुझ को जो कहते हो म्याँ तुम हो कहाँ तुम हो कहाँ
देखी थी एक रात तिरी ज़ुल्फ़ ख़्वाब में
इस तरह बज़्म में वस्फ़-ए-रुख़-ए-जानाना करूँ