नौ-मश्क़-ए-इश्क़ हैं हम आहें करें अजब क्या
गीली जलेगी लकड़ी क्यूँकर धुआँ न होगा
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किस लिए सहरा के मुहताज-ए-तमाशा होजिए
ज़ख़्म के लगते ही क्या खुल गए छाती के किवाड़
भर नज़र देखेंगे हम उस को मिला जानाँ अगर
सौ ईद अगर ज़माने में लाए फ़लक व-लेक
गर गरेबाँ सिया तो क्या नासेह
क्या न-दीदों से ज़माने को सरोकार है आज
इलाही चश्म-ए-बद उस से तू दूर ही रखियो
अब्र के बिन देखे हरगिज़ ख़ुश दिल-ए-मस्ताँ न हो
ऐसा किसी से जुनूँ दस्त-ओ-गरेबाँ न हो
यार के रुख़ ने कभी इतना न हैराँ किया
अब तो तुम भी जवाँ हुए हो देखेंगे दिल को बचाओगे तुम
देखी थी एक रात तिरी ज़ुल्फ़ ख़्वाब में