रफ़ू फिर कीजियो पैराहन-ए-यूसुफ़ को ऐ ख़य्यात
सिया जाए तो सी पहले तू चाक-ए-दिल ज़ुलेख़ा का
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ऐसा किसी से जुनूँ दस्त-ओ-गरेबाँ न हो
जिस तरह हम रहे दुनिया में हैं उस तरह 'रज़ा'
अब तो तुम भी जवाँ हुए हो देखेंगे दिल को बचाओगे तुम
अब्र है अब्र है शराब शराब
या फ़क़ीरी है या कि शाही है
काबा ओ दैर जिधर देखा उधर कसरत है
सुनते तो थे 'रज़ा' हैं सब हैं बड़े मुसलमाँ
क्या न-दीदों से ज़माने को सरोकार है आज
टुक तू महमिल का निशाँ दे जल्द ऐ सूरत ज़रा
इलाही चश्म-ए-बद उस से तू दूर ही रखियो
क्या कहें अपनी सियह-बख़्ती ही का अंधेर है
अब्र के बिन देखे हरगिज़ ख़ुश दिल-ए-मस्ताँ न हो