काबा ओ दैर जिधर देखा उधर कसरत है
आह क्या जाने किधर गोशा-ए-तन्हाई है
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अब्र के बिन देखे हरगिज़ ख़ुश दिल-ए-मस्ताँ न हो
इमारत दैर ओ मस्जिद की बनी है ईंट ओ पत्थर से
सौ ग़म्ज़े के रखता है निगहबान पस-ओ-पेश
ख़्वाह काफ़िर मुझे कह ख़्वाह मुसलमान ऐ शैख़
सौ ईद अगर ज़माने में लाए फ़लक व-लेक
टुक तू महमिल का निशाँ दे जल्द ऐ सूरत ज़रा
तबीब देख के मुझ को दवा न कुछ बोला
उस चश्म ने कि तूतियों को नुक्ता-दाँ किया
टुक बैठ तू ऐ शोख़-ए-दिल-आराम बग़ल में
चला है काबे को बुत-ख़ाने से 'रज़ा' यारो
आरज़ू-ए-विसाल में सब हैं
या फ़क़ीरी है या कि शाही है