सौ ग़म्ज़े के रखता है निगहबान पस-ओ-पेश
आता है अकेला पर अकेला नहीं आता
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क्या न-दीदों से ज़माने को सरोकार है आज
हम को मिली है इश्क़ से इक आह-ए-सोज़-नाक
मौत भी आती नहीं हिज्र के बीमारों को
यार को बेबाकी में अपना सा हम ने कर लिया
गुल-ए-उश्शाक़ रंग-ए-बाख़्ता है
चला है काबे को बुत-ख़ाने से 'रज़ा' यारो
ज़ुल्फ़ खोले था कहाँ अपनी वो फिर बेबाक रात
सच कह 'रज़ा' ये किस से लगाई है साट-बाट
निकल मत घर से तू ऐ ख़ाना-आबाद
क्या कहें अपनी सियह-बख़्ती ही का अंधेर है
गर गरेबाँ सिया तो क्या नासेह
सब कुछ पढ़ाया हम को मुदर्रिस ने इश्क़ के