सब कुछ पढ़ाया हम को मुदर्रिस ने इश्क़ के
मिलता है जिस से यार न ऐसी पढ़ाई बात
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मौत भी आती नहीं हिज्र के बीमारों को
चला है काबे को बुत-ख़ाने से 'रज़ा' यारो
टुक बैठ तू ऐ शोख़-ए-दिल-आराम बग़ल में
जब उठे तेरे आस्ताने से
देखी थी एक रात तिरी ज़ुल्फ़ ख़्वाब में
ज़ख़्म के लगते ही क्या खुल गए छाती के किवाड़
हर नफ़स मूरिद-ए-सफ़र हैं हम
हम को मिली है इश्क़ से इक आह-ए-सोज़-नाक
क्या कहें अपनी सियह-बख़्ती ही का अंधेर है
रफ़ू फिर कीजियो पैराहन-ए-यूसुफ़ को ऐ ख़य्यात
इलाही चश्म-ए-बद उस से तू दूर ही रखियो
न काबा है यहाँ मेरे न है बुत-ख़ाना पहलू में