या फ़क़ीरी है या कि शाही है
इश्क़ में दोनों रू-सियाही है
इस तरह उस को मौत दे यारब
ज़िंदगी मेरी जिस ने चाही है
अपना दिखला दे गोशा-ए-दस्तार
गुल को दावा-ए-कज-कुलाही है
क्यूँके उस पर न ऐ 'रज़ा' मरिए
ख़ूबसूरत और सिपाही है
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काबे में शैख़ मुझ को समझे ज़लील लेकिन
भर नज़र देखेंगे हम उस को मिला जानाँ अगर
ज़ुल्फ़ खोले था कहाँ अपनी वो फिर बेबाक रात
यार के रुख़ ने कभी इतना न हैराँ किया
नौ-मश्क़-ए-इश्क़ हैं हम आहें करें अजब क्या
ख़्वाह काफ़िर मुझे कह ख़्वाह मुसलमान ऐ शैख़
उस घड़ी कुछ थे और अब कुछ हो
इमारत दैर ओ मस्जिद की बनी है ईंट ओ पत्थर से
मैं ही नहीं हूँ बरहम उस ज़ुल्फ़-ए-कज-अदा से
यार को बेबाकी में अपना सा हम ने कर लिया
ख़ुशा हो कर बुताँ कब आशिक़ों को याद करते हैं
ऐ बुत-ए-ना-आश्ना कब तुझ से बेगाने हैं हम