जिस तरह हम रहे दुनिया में हैं उस तरह 'रज़ा'
शैख़ बुत-ख़ाने में काबे में बरहमन न रहा
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ग़ैरों का उस तरफ़ से गुज़ारा न जाएगा
चला है काबे को बुत-ख़ाने से 'रज़ा' यारो
ऐसा किसी से जुनूँ दस्त-ओ-गरेबाँ न हो
न काबा है यहाँ मेरे न है बुत-ख़ाना पहलू में
नौ-मश्क़-ए-इश्क़ हैं हम आहें करें अजब क्या
ज़ुल्फ़ खोले था कहाँ अपनी वो फिर बेबाक रात
क्या न-दीदों से ज़माने को सरोकार है आज
इश्क़ के जाँ-निसार जीते हैं
निकल मत घर से तू ऐ ख़ाना-आबाद
तबीब देख के मुझ को दवा न कुछ बोला
आरज़ू-ए-विसाल में सब हैं