सुनते तो थे 'रज़ा' हैं सब हैं बड़े मुसलमाँ
पर कुफ़्र में ज़ियादा निकले वह बरहमन से
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क्या कहें अपनी सियह-बख़्ती ही का अंधेर है
काबा ओ दैर जिधर देखा उधर कसरत है
ऐसा किसी से जुनूँ दस्त-ओ-गरेबाँ न हो
वबाल-ए-जान हर इक बाल है म्याँ
तबीब देख के मुझ को दवा न कुछ बोला
नाज़ का मारा हुआ हूँ मैं अदा की सौगंद
न काबा है यहाँ मेरे न है बुत-ख़ाना पहलू में
इक दम के वास्ते न किया क्या क्या ऐ 'रज़ा'
टुक बैठ तू ऐ शोख़-ए-दिल-आराम बग़ल में
अब्र है अब्र है शराब शराब
काबे में शैख़ मुझ को समझे ज़लील लेकिन
ज़ुल्फ़ खोले था कहाँ अपनी वो फिर बेबाक रात