मेरे घर में ग़ैर के डर से कभी छुप जाइए
ग़ैर के घर में छपे थे आज किस की डर से आप
Wasi Shah
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हम ने देखा तरफ़-ए-मय-कदा जाते थे 'रियाज़'
है भी कुछ या नहीं मैं हाथ लगा कर देखूँ
हम बंद किए आँख तसव्वुर में पड़े हैं
अहल-ए-हरम से कह दो कि बिगड़ी नहीं है बात
आलम-ए-हू में कुछ आवाज़ सी आ जाती है
पैमाने में वो ज़हर नहीं घोल रहे थे
उठता है एक पाँव तो थमता है एक पाँव
दिल ढूँढती है निगह किसी की
बहुत ही पर्दे में इज़हार-ए-आरज़ू करते
ये क़ैस-ओ-कोहकन के से फ़साने बन गए कितने
हमारी आँखों में आओ तो हम दिखाएँ तुम्हें
मैं उठा रक्खूँ न कुछ इन के लिए