मिरे घर मिस्ल तबर्रुक के ये सामाँ निकला
आस्तीं क़ैस की फ़रहाद का दामाँ निकला
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हंस के पैमाना दिया ज़ालिम ने तरसाने के बा'द
तेज़ है पीने में हो जाएगी आसानी मुझे
भर भर के जाम बज़्म में छलकाए जाते हैं
हम भी पिएँ तुम्हें भी पिलाएँ तमाम रात
छेड़ते हैं गुदगुदाते हैं फिर अरमाँ आज-कल
आप आए तो ख़याल-ए-दिल-ए-नाशाद आया
उस हुस्न का शैदा हूँ उस हुस्न का दीवाना
ये कोई बात है सुनता न बाग़बाँ मेरी
पर्दे पर्दे में ये कर लेती हैं राहें क्यूँकर
बाला-ए-बाम ग़ैर है में आस्तान पर
अज़ाँ का काम चल जाए जो नाक़ूस-ए-बरहमन से
गुल मुरक़्क़ा' हैं तिरे चाक गरेबानों के