तुम ने कैसा ये राब्ता रक्खा
न मिले हो न फ़ासला रक्खा
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Habib Jalib
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किसी भी वहम को ख़ुद पर सवार मत करना
वो भी बिगड़ा, हुई रुस्वाई भी
दश्त की प्यास बढ़ाने के लिए आए थे
उदास मौसम के रतजगों में
क्यूँ न हम सोच के साँचे में ही ढल कर देखें
हम को ख़ुश आया तिरा हम से ख़फ़ा हो जाना
दर्द को अश्क बनाने की ज़रूरत क्या थी
तू न रुस्वा हो इस लिए हम ने
अब्र उतरा है चार-सू देखो
अपनी सोचें सफ़र में रहती हैं
मुझ सा कोई जहान में नादान भी न हो