आँख तुम्हारी मस्त भी है और मस्ती का पैमाना भी
एक छलकते साग़र में मय भी है मय-ख़ाना भी
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फिर रह-ए-इश्क़ वही ज़ाद-ए-सफ़र माँगे है
वो सवाल-ए-लुत्फ़ पर पत्थर न बरसाएँ तो क्यूँ
नग़्मे हवा ने छेड़े फ़ितरत की बाँसुरी में
तख़्लीक़ अँधेरों से किए हम ने उजाले
दश्त में क़ैस नहीं कोह पे फ़रहाद नहीं
जो रहीन-ए-तग़य्युरात नहीं
रातों को तसव्वुर है उन का और चुपके चुपके रोना है
हैरत से तक रहा है जहान-ए-वफ़ा मुझे
आओ इक सज्दा करूँ आलम-ए-बद-सम्ती में
वो मिरी ख़ाक-नशीनी के मज़े क्या जाने
यही सहबा यही साग़र यही पैमाना है
काफ़िर गेसू वालों की रात बसर यूँ होती है