तख़्लीक़ अँधेरों से किए हम ने उजाले
हर शब को इक ऐवान-ए-सहर हम ने बनाया
Javed Akhtar
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Habib Jalib
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Gulzar
Allama Iqbal
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हम आँखों से भी अर्ज़-ए-तमन्ना नहीं करते
दिल की बर्बादियों का रोना क्या
वो मिरी ख़ाक-नशीनी के मज़े क्या जाने
गुल अपने ग़ुंचे अपने गुल्सिताँ अपना बहार अपनी
वो सवाल-ए-लुत्फ़ पर पत्थर न बरसाएँ तो क्यूँ
हैरत से तक रहा है जहान-ए-वफ़ा मुझे
रातों को तसव्वुर है उन का और चुपके चुपके रोना है
सैलाब-ए-तबस्सुम से दरमान-ए-जराहत कर
काफ़िर गेसू वालों की रात बसर यूँ होती है
तेरे नग़्मों से है रग रग में तरन्नुम पैदा
ख़िरामाँ ख़िरामाँ मोअत्तर मोअत्तर