सज्दे मिरी जबीं के नहीं इस क़दर हक़ीर
कुछ तो समझ रहा हूँ तिरे आस्ताँ को मैं
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न कश्ती है न फ़िक्र-ए-ना-ख़ुदा है
दश्त में क़ैस नहीं कोह पे फ़रहाद नहीं
हुस्न ने दस्त-ए-करम खींच लिया है क्या ख़ूब
सावन की रुत आ पहुँची काले बादल छाएँगे
सदियों की शब-ए-ग़म को सहर हम ने बनाया
गुल अपने ग़ुंचे अपने गुल्सिताँ अपना बहार अपनी
रातों को तसव्वुर है उन का और चुपके चुपके रोना है
आओ इक सज्दा करूँ आलम-ए-बद-सम्ती में
तेरे नग़्मों से है रग रग में तरन्नुम पैदा
नज़र करम की फ़रावानियों पे पड़ती है
पनघट की रानी
हम आँखों से भी अर्ज़-ए-तमन्ना नहीं करते