आओ इक सज्दा करूँ आलम-ए-बद-सम्ती में
लोग कहते हैं कि 'साग़र' को ख़ुदा याद नहीं
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वो सवाल-ए-लुत्फ़ पर पत्थर न बरसाएँ तो क्यूँ
दिल की बर्बादियों का रोना क्या
हम आँखों से भी अर्ज़-ए-तमन्ना नहीं करते
जो रहीन-ए-तग़य्युरात नहीं
गुल अपने ग़ुंचे अपने गुल्सिताँ अपना बहार अपनी
सावन की रुत आ पहुँची काले बादल छाएँगे
गेसू को तिरे रुख़ से बहम होने न देंगे
यही सहबा यही साग़र यही पैमाना है
तेरे नग़्मों से है रग रग में तरन्नुम पैदा
काफ़िर गेसू वालों की रात बसर यूँ होती है
ढूँढने को तुझे ओ मेरे न मिलने वाले
सदियों की शब-ए-ग़म को सहर हम ने बनाया