तेरे नग़्मों से है रग रग में तरन्नुम पैदा
इशरत-ए-रूह है ज़ालिम तिरी आवाज़ नहीं
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वो सवाल-ए-लुत्फ़ पर पत्थर न बरसाएँ तो क्यूँ
फिर रह-ए-इश्क़ वही ज़ाद-ए-सफ़र माँगे है
काफ़िर गेसू वालों की रात बसर यूँ होती है
न कश्ती है न फ़िक्र-ए-ना-ख़ुदा है
हैरत से तक रहा है जहान-ए-वफ़ा मुझे
दश्त में क़ैस नहीं कोह पे फ़रहाद नहीं
हम आँखों से भी अर्ज़-ए-तमन्ना नहीं करते
नज़र करम की फ़रावानियों पे पड़ती है
नग़्मे हवा ने छेड़े फ़ितरत की बाँसुरी में
तख़्लीक़ अँधेरों से किए हम ने उजाले
आँख तुम्हारी मस्त भी है और मस्ती का पैमाना भी