नज़र करम की फ़रावानियों पे पड़ती है
फिर अपने दामन-ए-ख़ाकी को देखता हूँ मैं
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गेसू को तिरे रुख़ से बहम होने न देंगे
नग़्मे हवा ने छेड़े फ़ितरत की बाँसुरी में
ढूँढने को तुझे ओ मेरे न मिलने वाले
सज्दे मिरी जबीं के नहीं इस क़दर हक़ीर
आँख तुम्हारी मस्त भी है और मस्ती का पैमाना भी
न कश्ती है न फ़िक्र-ए-ना-ख़ुदा है
दश्त में क़ैस नहीं कोह पे फ़रहाद नहीं
वो सवाल-ए-लुत्फ़ पर पत्थर न बरसाएँ तो क्यूँ
तख़्लीक़ अँधेरों से किए हम ने उजाले
दोस्तो दुर्द पिलाओ कि कड़ी रात कटे
दिल की बर्बादियों का रोना क्या