यही सहबा यही साग़र यही पैमाना है
चश्म-ए-साक़ी है कि मय-ख़ाने का मय-ख़ाना है
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तेरे नग़्मों से है रग रग में तरन्नुम पैदा
न कश्ती है न फ़िक्र-ए-ना-ख़ुदा है
दश्त में क़ैस नहीं कोह पे फ़रहाद नहीं
तख़्लीक़ अँधेरों से किए हम ने उजाले
वो सवाल-ए-लुत्फ़ पर पत्थर न बरसाएँ तो क्यूँ
सज्दे मिरी जबीं के नहीं इस क़दर हक़ीर
आओ इक सज्दा करूँ आलम-ए-बद-सम्ती में
नग़्मे हवा ने छेड़े फ़ितरत की बाँसुरी में
होली
यूँ न रह रह कर हमें तरसाइए
ख़िरामाँ ख़िरामाँ मोअत्तर मोअत्तर
हैरत से तक रहा है जहान-ए-वफ़ा मुझे