हुस्न ने दस्त-ए-करम खींच लिया है क्या ख़ूब
अब मुझे भी हवस-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार नहीं
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रातों को तसव्वुर है उन का और चुपके चुपके रोना है
यूँ न रह रह कर हमें तरसाइए
सावन की रुत आ पहुँची काले बादल छाएँगे
आँख तुम्हारी मस्त भी है और मस्ती का पैमाना भी
यही सहबा यही साग़र यही पैमाना है
सैलाब-ए-तबस्सुम से दरमान-ए-जराहत कर
वो मिरी ख़ाक-नशीनी के मज़े क्या जाने
हम आँखों से भी अर्ज़-ए-तमन्ना नहीं करते
नग़्मे हवा ने छेड़े फ़ितरत की बाँसुरी में
होली
पनघट की रानी
ख़िरामाँ ख़िरामाँ मोअत्तर मोअत्तर