जज़्बात भी हिन्दू होते हैं चाहत भी मुसलमाँ होती है
दुनिया का इशारा था लेकिन समझा न इशारा दिल ही तो है
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शुआ-ए-फ़र्दा
नालाँ हूँ मैं बेदारी-ए-एहसास के हाथों
ऐ नई नस्ल
ख़ाना-आबादी
नाकामी
जहाँ जहाँ तिरी नज़रों की ओस टपकी है
तुम अपना रंज-ओ-ग़म अपनी परेशानी मुझे दे दो
वज्ह-ए-बे-रंगी-ए-गुलज़ार कहूँ तो क्या हो
हवस-नसीब नज़र को कहीं क़रार नहीं
हमीं से रंग-ए-गुलिस्ताँ हमीं से रंग-ए-बहार
अब आएँ या न आएँ इधर पूछते चलो
तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा