कभी ख़ुद पे कभी हालात पे रोना आया
बात निकली तो हर इक बात पे रोना आया
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संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है
नालाँ हूँ मैं बेदारी-ए-एहसास के हाथों
तोड़ लेंगे हर इक शय से रिश्ता तोड़ देने की नौबत तो आए
ये वादियाँ ये फ़ज़ाएँ बुला रही हैं तुम्हें
देखा है ज़िंदगी को कुछ इतना क़रीब से
शुआ-ए-फ़र्दा
ले दे के अपने पास फ़क़त इक नज़र तो है
औरत ने जनम दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाज़ार दिया
शहकार
एक मंज़र
मुझे सोचने दे
एहसास-ए-कामराँ