ले दे के अपने पास फ़क़त इक नज़र तो है
क्यूँ देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम
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इस रेंगती हयात का कब तक उठाएँ बार
यूँही दिल ने चाहा था रोना-रुलाना
बरबाद-ए-मोहब्बत की दुआ साथ लिए जा
बहुत घुटन है कोई सूरत-ए-बयाँ निकले
इक और भी है मुंसिफ़
माज़ूरी
जश्न-ए-ग़ालिब
ऐ शरीफ़ इंसानो
कोई तो ऐसा घर होता जहाँ से प्यार मिल जाता
मोहब्बत तर्क की मैं ने गरेबाँ सी लिया मैं ने
देखा है ज़िंदगी को कुछ इतना क़रीब से
इंसाफ़ का तराज़ू जो हाथ में उठाए