यूँही दिल ने चाहा था रोना-रुलाना
तिरी याद तो बन गई इक बहाना
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अहल-ए-दिल और भी हैं
हर एक दौर का मज़हब नया ख़ुदा लाया
हज़ार बर्क़ गिरे लाख आँधियाँ उट्ठें
तरह-ए-नौ
न तो ज़मीं के लिए है न आसमाँ के लिए
तुम हुस्न की ख़ुद इक दुनिया हो शायद ये तुम्हें मालूम नहीं
अब कोई गुलशन न उजड़े अब वतन आज़ाद है
ये ज़ुल्फ़ अगर खुल के बिखर जाए तो अच्छा
एक तस्वीर-ए-रंग
तंग आ चुके हैं कशमकश-ए-ज़िंदगी से हम
जहाँ जहाँ तिरी नज़रों की ओस टपकी है
सुब्ह-ए-नौ-रूज़