तंग आ चुके हैं कशमकश-ए-ज़िंदगी से हम
ठुकरा न दें जहाँ को कहीं बे-दिली से हम
Faiz Ahmad Faiz
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किसी को उदास देख कर
मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया
चकले
बर्बादियों का सोग मनाना फ़ुज़ूल था
जो मिल गया उसी को मुक़द्दर समझ लिया
हर-चंद मिरी क़ुव्वत-ए-गुफ़्तार है महबूस
देखा है ज़िंदगी को कुछ इतने क़रीब से
एक वाक़िआ
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर
अब वो करम करें कि सितम मैं नशे में हूँ
तुम्हारे अहद-ए-वफ़ा को मैं अहद क्या समझूँ
इंसाफ़ का तराज़ू जो हाथ में उठाए