बुझे लबों पे है बोसों की राख बिखरी हुई
मैं इस बहार में ये राख भी उड़ा दूँगा
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सदमा
मुहासबा
प्यास बढ़ती जा रही है बहता दरिया देख कर
रात नादीदा बलाओं के असर में हम थे
सुर्ख़ चमन ज़ंजीर किए हैं सब्ज़ समुंदर लाया हूँ
सफ़र की धूप में चेहरे सुनहरे कर लिए हम ने
सुब्ह तक रात की ज़ंजीर पिघल जाएगी
मरता लम्हा
घर
ये क्या तिलिस्म है क्यूँ रात भर सिसकता हूँ
मगर उन सीपियों में पानियों का शोर कैसा था
मौत की ख़ुशबू