मुझे गुनाह में अपना सुराग़ मिलता है
वगरना पारसा-ओ-दीन-दार मैं भी था
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हिरास फैल गया है ज़मीन-दानों में
मेरे अंदर उसे खोने की तमन्ना क्यूँ है
ये क्या तिलिस्म है क्यूँ रात भर सिसकता हूँ
मिट्टी थी ख़फ़ा मौज उठा ले गई हम को
हद-बंदी-ए-ख़िज़ाँ से हिसार-ए-बहार तक
सदमा
यहीं कहीं पे कभी शोला-कार मैं भी था
मुद्दत हुई इक शख़्स ने दिल तोड़ दिया था
वो आग हूँ कि नहीं चैन एक आन मुझे
मुझ को मिरी शिकस्त की दोहरी सज़ा मिली
मैं खिल नहीं सका कि मुझे नम नहीं मिला
मगर उन सीपियों में पानियों का शोर कैसा था