रूह में रेंगती रहती है गुनह की ख़्वाहिश
इस अमरबेल को इक दिन कोई दीवार मिले
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मुझे ख़बर थी मिरा इंतिज़ार घर में रहा
वही जीने की आज़ादी वही मरने की जल्दी है
दुनिया
मैं किसी जवाज़ के हिसार में न था
सोच में डूबा हुआ हूँ अक्स अपना देख कर
उस के वारिस नज़र नहीं आए
सुर्ख़ चमन ज़ंजीर किए हैं सब्ज़ समुंदर लाया हूँ
मरता लम्हा
ख़ुदा के वास्ते मौक़ा न दे शिकायत का
दर्द पुराना आँसू माँगे आँसू कहाँ से लाऊँ
ये कौन आया शबिस्ताँ के ख़्वाब पहने हुए
तू जान-ए-मोहब्बत है मगर तेरी तरफ़ भी