ज़िंदगी इक इम्तिहाँ है इम्तिहाँ का डर नहीं
हम अँधेरों से गुज़र कर रौशनी कहलाएँगे
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चलो बाँट लेते हैं अपनी सज़ाएँ
कभी कभी तू मुझे याद कर तो लेती है
जब कभी तेरा नाम लेते हैं
है तिरा इंतिज़ार गुलशन में
तेरा मेरा झगड़ा क्या जब इक आँगन की मिट्टी है
ग़म-ए-हयात का झगड़ा मिटा रहा है कोई
हम-सफ़र होता कोई तो बाँट लेते दूरियाँ
सभी ने लगाया है चेहरे पे चेहरा
वो मोड़ जिस ने हमें अजनबी बना डाला