फ़िक्र ओ एहसास के तपते हुए मंज़र तक आ
मेरे लफ़्ज़ों में उतर कर मिरे अंदर तक आ
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बादशाहत के मज़े हैं ख़ाकसारी में 'सलीम'
नूर की शाख़ से टूटा हुआ पत्ता हूँ मैं
कभी सुर्ख़ी से लिखता हूँ कभी काजल से लिखता हूँ
आज दीवाने का ज़ौक़-ए-दीद पूरा हो गया
बना देगी ज़मीं को आज शायद आसमाँ बारिश
मौजा-ए-रेग-ए-रवान-ए-ग़म में बह के देखना
वहम जैसी शुकूक जैसी चीज़
अजब हैं सूरत-ए-हालात अब के
दिन-ब-दिन सफ़्हा-ए-हस्ती से मिटा जाता हूँ
ख़मोशी में छुपे लफ़्ज़ों के हुलिए याद आएँगे