बादशाहत के मज़े हैं ख़ाकसारी में 'सलीम'
ये नज़ारा यार के कूचे में रह के देखना
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बना देगी ज़मीं को आज शायद आसमाँ बारिश
कुछ ऐसा हो कि तस्वीरों में जल जाए तसव्वुर भी
एक ही ज़िंदा बचा है ये निराला पागल
अजब हैं सूरत-ए-हालात अब के
दिन-ब-दिन सफ़्हा-ए-हस्ती से मिटा जाता हूँ
'ग़ालिब'-ए-दाना से पूछो इश्क़ में पड़ कर सलीम
वहम जैसी शुकूक जैसी चीज़
नूर की शाख़ से टूटा हुआ पत्ता हूँ मैं
फ़िक्र ओ एहसास के तपते हुए मंज़र तक आ
कभी सुर्ख़ी से लिखता हूँ कभी काजल से लिखता हूँ
वक़्त के सहरा में नंगे पाँव ठहरे हो 'सलीम'